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राष्ट्रपति पद का संक्षिप्त विवरण नीचे अधोलिखित
राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी का कार्यकाल 24 जुलाई, 2017 को समाप्त हो रहा है। संविधान के अनुच्छेद 62 के अनुसार, राष्ट्रपति के कार्यकाल की अविध के समाप्त होने से पहले निवर्तमान राष्ट्रपति से उत्पन्न पद की रिक्तता को भरने के लिए चुनाव कराया जाना आवश्यक है। कानून में कहा गया है कि चुनाव की अधिसूचना निवर्तमान राष्ट्रपति के कार्यकाल के समाप्त होने से पहले 60वें दिन या उसके बाद जारी की जाएगी।
संविधान के अनुच्छेद के अनुसार, राष्ट्रपति एवं उपराष्ट्रपति चुनाव अधिनियम, 1952 एवं राष्ट्रपति एवं उपराष्ट्रपति चुनाव नियम, 1974 राष्ट्रपति पद के चुनाव के संचालन का निरीक्षण, निर्देश एवं नियंत्रण का दायित्व भारत के चुनाव आयोग पर है। चुनाव आयोग को यह सुनिश्चित करने का अधिदेश है कि राष्ट्रपति पद, जोकि देश में सर्वोच्च निर्वाचक पद है, का चुनाव निष्पक्ष तरीके से हो। चुनाव आयोग अपनी संवैधानिक जिम्म्ेदारी के निर्वहन के लिए सभी आवश्यक कदम उठा रहा है।
राष्ट्रपति का निर्वाचन निर्वाचक मंडल के सदस्यों द्वारा किया जाता है जिसमें संसद के दोनों सदनों के निर्वाचित सदस्य और राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली एवं केंद्र शासित प्रदेश पुद्दुचेरी समेत सभी राज्यों की विधान सभाओं के निर्वाचित सदस्य शामिल होते हैं।
राज्य सभा और लोकसभा या राज्यों की विधान सभाओं के नामांकित सदस्य निर्वाचक मंडल में शामिल होने के पात्र नहीं होते हैं और इसलिए वे चुनाव में भाग लेने के ‍हकदार नहीं होते। इसी प्रकार, विधान परिषदों के सदस्य भी राष्ट्रपति चुनाव के मतदाता नहीं होते।
संविधान के अनुच्छेद 55 (3) में प्रावधान है कि चुनाव एकल हस्तांतरणीय वोट के द्वारा समानुपातिक प्रतिनिधित्व की प्रणाली के अनुरूप किया जाएगा और ऐसा चुनाव गुप्त मतदान के जरिये संचालित किया जाएगा। इस प्रणाली में, निर्वाचक उम्मीदवार के नाम के आगे वरीयता चिन्हित करेंगे। चुनाव में मार्किंग के लिए चुनाव आयोग विशिष्ट पेन का उपयोग करेगा। चुनाव आयोग केंद्र सरकार के परामर्श से निर्वाचन अधिकारी के रूप में बारी बारी से लोक सभा एवं राज्य सभा के महासचिव की नियुक्ति करता है। इसी के अनुरूप, वर्तमान चुनाव के लिए निर्वाचन अधिकारी के रूप में लोक सभा के महासचिव की नियुक्ति की जाएगी। चुनाव के लिए मतदान संसद भवन में तथा राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली एवं केंद्र शासित प्रदेश पुद्दुचेरी समेत राज्यों की विधान सभाओं के परिसरों में आयोजित किया जाएगा।
भारत के राष्ट्रपति :
भारत के राष्ट्रपति संघ के कार्यपालक अध्यक्ष हैं। संघ के सभी कार्यपालक कार्य उनके नाम से किये जाते हैं। अनुच्छेद 52 के अनुसार संघ की कार्यपालक शक्ति उनमें निहित है। वह सशस्त्र सेनाओं का सर्वोच्च सेनानायक भी होता है। सभी प्रकार के आपातकाल लगाने व हटाने वाला, युद्ध/शांति की घोषणा करने वाला होता है। वह देश के प्रथम नागरिक है। भारतीय राष्ट्रपति का भारतीय नागरिक होना आवश्यक है।
सिद्धांततः राष्ट्रपति के पास पर्याप्त शक्ति होती है। पर कुछ अपवादों के अलावा राष्ट्रपति के पद में निहित अधिकांश अधिकार वास्तव में प्रधानमंत्री की अध्यक्षता वाले मंत्रिपरिषद् के द्वारा उपयोग किए जाते हैं।
भारत के राष्ट्रपति नई दिल्ली स्थित राष्ट्रपति भवन में रहते हैं, जिसे रायसीना हिल के नाम से भी जाना जाता है। राष्ट्रपति अधिकतम कितनी भी बार पद पर रह सकते हैं। अधिकतम की कोई सीमा तय नही हैं। अब तक केवल पहले राष्ट्रपति डॉ॰ राजेंद्र प्रसाद ने ही इस पद पर दो बार अपना कार्यकाल पूरा किया है।
प्रतिभा पाटिल भारत की 12वीं तथा इस पद को सुशोभीत करने वाली पहली महिला राष्ट्रपति हैं। उन्होंने 25 जुलाई 2007 को पद व गोपनीयता की शपथ ली थी।
सम्प्रति प्रणव मुखर्जी भारत के राष्ट्रपति हैं।
इतिहास : भारत के राष्ट्रपति
15 अगस्त 1947 को भारत ब्रिटेन से स्वतंत्र हुआ था और अन्तरिम व्यवस्था के तहत देश एक राष्ट्रमंडल अधिराज्य बन गया। इस व्यवस्था के तहत भारत के गवर्नर जनरल को भारत के राष्ट्रप्रमुख के रूप में स्थापित किया गया, जिन्हें ब्रिटीश इंडिया में ब्रिटेन के अन्तरिम राजा - जॉर्ज VI द्वारा ब्रिटिश सरकार के बजाय भारत के प्रधानमंत्री की सलाह पर नियुक्त करना था।
यह एक अस्थायी उपाय था, परन्तु भारतीय राजनीतिक प्रणाली में साझा राजा के अस्तित्व को जारी रखना सही मायनों में संप्रभु राष्ट्र के लिए उपयुक्त विचार नहीं था। आजादी से पहले भारत के आखरी ब्रिटिश वाइसराय लॉर्ड माउंटबेटन हीं भारत के पहले गवर्नर जनरल बने थे। जल्द ही उन्होंने सी.राजगोपालाचार
ी को यह पद सौंप दिया, जो भारत के इकलौते भारतीय मूल के गवर्नर जनरल बने थे।
इसी बीच डॉ॰ राजेंद्र प्रसाद के नेतृत्व में संविधान सभा द्वारा 26 नवम्बर 1949 को भारतीय सविंधान का मसौदा तैयार हो चुका था और 26 जनवरी 1950 को औपचारिक रूप से संविधान को स्वीकार किया गया था। इस तारीख का प्रतीकात्मक महत्व था क्योंकि 26 जनवरी 1930 को भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने ब्रिटेन से पहली बार पूर्ण स्वतंत्रता को आवाज़ दी थी। जब संविधान लागू हुआ और राजेंद्र प्रसाद ने भारत के पहले राष्ट्रपति का पद सभांला तो उसी समय गवर्नर जनरल और राजा का पद एक निर्वाचित राष्ट्रपति द्वारा प्रतिस्थापित हो गया।
इस कदम से भारत की एक राष्ट्रमंडल अधिराज्य की स्थिति समाप्त हो गया। लेकिन यह गणतंत्र राष्ट्रों के राष्ट्रमंडल का सदस्य बना रहा। क्योंकि भारत के प्रथम प्रधानमंत्री नेहरू ने तर्क किया की यदि कोई भी राष्ट्र ब्रिटिश सम्राट को "राष्ट्रमंडल के प्रधान" के रूप में स्वीकार करे पर ज़रूरी नहीं है की वह ब्रिटिश सम्राट को अपने राष्ट्रप्रधान की मान्यता दे, उसे राष्ट्रमंडल में रहने की अनुमति दी जानी चाहिए। यह एक अत्यन्त महत्वपूर्ण निर्णय था जिसने बीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध में नए-स्वतंत्र गणराज्य बने कई अन्य पूर्व ब्रिटिश उपनिवेशों के राष्ट्रमंडल में रहने के लिए एक मिसाल स्थापित किया।
राष्ट्रपति का चुनाव :
भारत के राष्ट्रपति का चुनाव आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली के एकल संक्रमणीय मत पद्धति के द्वारा होता है।
राष्ट्रपति को भारत के संसद के दोनो सदनों (लोक सभा और राज्य सभा) तथा साथ ही राज्य विधायिकाओं (विधान सभाओं) के निर्वाचित सदस्यों द्वारा पाँच वर्ष की अवधि के लिए चुना जाता है। वोट आवंटित करने के लिए एक फार्मूला इस्तेमाल किया गया है ताकि हर राज्य की जनसंख्या और उस राज्य से विधानसभा के सदस्यों द्वारा वोट डालने की संख्या के बीच एक अनुपात रहे और राज्य विधानसभाओं के सदस्यों और राष्ट्रीय सांसदों के बीच एक समानुपात बनी रहे।
अगर किसी उम्मीदवार को बहुमत प्राप्त नहीं होती है तो एक स्थापित प्रणाली है जिससे हारने वाले उम्मीदवारों को प्रतियोगिता से हटा दिया जाता है और उनको मिले वोट अन्य उम्मीदवारों को तबतक हस्तांतरित होता है, जबतक किसी एक को बहुमत नहीं मिलती।
राष्ट्रपति बनने के लिए आवश्यक योग्यताएँ :
भारत का कोई नागरिक जिसकी उम्र 35 साल या अधिक हो वो एक राष्ट्रपति बनने के लिए उम्मीदवार हो सकता है। राष्ट्रपति के लिए उम्मीदवार को लोकसभा का सदस्य बनने की योग्यता होना चाहिए और सरकार के अधीन कोई लाभ का पद धारण नहीं करना चाहिए। परन्तु निम्नलिखित कुछ कार्यालय-धारकों को राष्ट्रपति के उम्मीदवार के रूप में खड़ा होने की अनुमति दी गई है:
1) वर्तमान राष्ट्रपति
2) वर्तमान उपराष्ट्रपति
3) किसी भी राज्य के राज्यपाल
4) संघ या किसी राज्य के मंत्री।
राष्ट्रपति के निर्वाचन सम्बन्धी किसी भी विवाद में निणर्य लेने का अधिकार उच्चतम न्यायालय को है।
राष्ट्रपति पर महाभियोग :
# अनुच्छेद_61 राष्ट्रपति के महाभियोग से संबंधित है। भारतीय संविधान के अंतर्गत मात्र राष्ट्रपति महाभियोजित होता है, अन्य सभी पदाधिकारी पद से हटाये जाते है।
महाभियोजन एक विधायिका संबंधित कार्यवाही है जबकि पद से हटाना एक कार्यपालिका संबंधित कार्यवाही है। महाभियोजन एक कडाई से पालित किया जाने वाला औपचारिक कृत्य है जो संविधान का उल्लघंन करने पर ही होता है।
यह उल्लघंन एक राजानैतिक कृत्य है जिसका निर्धारण संसद करती है। वह तभी पद से हटेगा जब उसे संसद मे प्रस्तुत किसी ऐसे प्रस्ताव से हटाया जाये जिसे प्रस्तुत करते समय सदन के 1/4 सदस्यों का समर्थन मिले।
प्रस्ताव पारित करने से पूर्व उसको 14 दिन पहले नोटिस दिया जायेगा। प्रस्ताव सदन की कुल संख्या के 2/3 से अधिक बहुमत से पारित होना चाहिये।
फिर दूसरे सदन मे जाने पर इस प्रस्ताव की जाँच एक समिति के द्वारा होगी। इस समय राष्ट्रपति अपना पक्ष स्वंय अथवा वकील के माध्यम से रख सकता है।
दूसरा सदन भी उसे उसी 2/3 बहुमत से पारित करेगा। दूसरे सदन द्वारा प्रस्ताव पारित करने के दिन से राष्ट्रपति पद से हट जायेगा।
राष्ट्रपति की शक्तियाँ :
A) न्यायिक शक्तियाँ :
संविधान का # 72वाँ_अनुच्छेद राष्ट्रपति को न्यायिक शक्तियाँ देता है कि वह दंड का उन्मूलन, क्षमा, आहरण, परिहरण, परिवर्तन कर सकता है।
# क्षमादान – किसी व्यक्ति को मिली संपूर्ण सजा तथा दोष सिद्धि और उत्पन्न हुई निर्योज्ञताओं को समाप्त कर देना तथा उसे उस स्थिति मे रख देना मानो उसने कोई अपराध किया ही नही था। यह लाभ पूर्णतः अथवा अंशतः मिलता है तथा सजा देने के बाद अथवा उससे पहले भी मिल सकती है।
# लघुकरण – दंड की प्रकृति कठोर से हटा कर नम्र कर देना उदाहरणार्थ सश्रम कारावास को सामान्य कारावास में बदल देना
# परिहार – दंड की अवधि घटा देना परंतु उस की प्रकृति नही बदली जायेगी
# विराम – दंड मे कमी ला देना यह विशेष आधार पर मिलती है जैसे गर्भवती महिला की सजा मे कमी लाना
# प्रविलंबन – दंड प्रदान करने मे विलम्ब करना विशेषकर मृत्यु दंड के मामलॉ मे
राष्ट्रपति की क्षमाकारी शक्तियां पूर्णतः उसकी इच्छा पर निर्भर करती हैं। उन्हें एक अधिकार के रूप मे मांगा नही जा सकता है। ये शक्तियां कार्यपालिका प्रकृति की है तथा राष्ट्रपति इनका प्रयोग मंत्रिपरिषद की सलाह पर करेगा। न्यायालय में इनको चुनौती दी जा सकती है। इनका लक्ष्य दंड देने मे हुई भूल का निराकरण करना है जो न्यायपालिका ने कर दी हो।
शेरसिंह बनाम पंजाब राज्य 1983 मे सुप्रीमकोर्ट ने निर्णय दिया की अनु 72, अनु. 161 के अंतर्गत दी गई दया याचिका जितनी शीघ्रता से हो सके उतनी जल्दी निपटा दी जाये। राष्ट्रपति न्यायिक कार्यवाही तथा न्यायिक निर्णय को नही बदलेगा वह केवल न्यायिक निर्णय से राहत देगा याचिकाकर्ता को यह भी अधिकार नही होगा कि वह सुनवाई के लिये राष्ट्रपति के समक्ष उपस्थित हो
B) वीटो शक्तियाँ :
विधायिका की किसी कार्यवाही को विधि बनने से रोकने की शक्ति वीटॉ शक्ति कहलाती है संविधान राष्ट्रपति को तीन प्रकार के वीटो देता है।
# पूर्ण_वीटो – निर्धारित प्रकिया से पास बिल जब राष्ट्रपति के पास आये (संविधान संशोधन बिल के अतिरिक्त)] तो वह् अपनी स्वीकृति या अस्वीकृति की घोषणा कर सकता है किंतु यदि
# अनु_368 के अंतर्गत कोई बिल आये तो वह अपनी अस्वीकृति नही दे सकता है यधपि भारत मे अब तक राष्ट्रपति ने इस वीटो का प्रयोग बिना मंत्रिपरिषद की सलाह के नही किया है माना जाता है कि वह ऐसा कर भी नही सकता। (ब्रिटेन मे यही पंरपंरा है जिसका अनुसरण भारत मे किया गया है।)
# निलम्बनकारी_वीटो – संविधान संशोधन अथवा धन बिल के अतिरिक्त राष्ट्रपति को भेजा गया कोई भी बिल वह संसद को पुर्नविचार हेतु वापिस भेज सकता है किंतु संसद यदि इस बिल को वापिस पास कर के भेज दे तो उसके पास सिवाय इसके कोई विकल्प नही है उस बिल को स्वीकृति दे दे। इस वीटो को वह अपने विवेकाधिकार से प्रयोग लेगा। इस वीटो का प्रयोग अभी तक संसद सदस्यॉ के वेतन बिल भत्ते तथा पेंशन नियम संशोधन 1991 मे किया गया था। यह एक वित्तीय बिल था। राष्ट्रपति वेंकट रमण ने इस वीटो का प्रयोग इस आधार पर किया कि यह बिल लोकसभा मे बिना उनकी अनुमति के लाया गया था।
# पाकेट_वीटो – संविधान राष्ट्रपति को स्वीकृति अस्वीकृति देने के लिये कोई समय सीमा नही देता है यदि राष्ट्रपति किसी बिल पे कोई निर्णय ना दे [सामान्य न कि धन या संविधान संशोधन ] तो माना जायेगा कि उस ने अपने पाकेट वीटो का प्रयोग किया है यह भी उसकी विवेकाधिकार शक्ति के अन्दर आता है पेप्सू बिल 1956 तथा भारतीय डाक बिल 1984 मे राष्ट्रपति ने इस वीटो का प्रयोग किया था।
C) राष्ट्रपति की संसदीय शक्ति :
राष्ट्रपति संसद का अंग है। कोई भी बिल बिना उसकी स्वीकृति के पास नही हो सकता अथवा सदन मे ही नहीं लाया जा सकता है।
D) राष्ट्रपति की विवेकाधीन शक्तियाँ :
1. अनु 74 के अनुसार 3 प्रकार के मंत्री है।
केबिनेट मंत्री
राज्यमंत्री
उपमंत्री
मंत्रीमण्डल(केबिनेट मंत्री), मंत्रीपरिषद(तीनों)।
राष्ट्रपति मंत्री परिषद की सलाह और सिफारीश से कार्य करेगा।
2. अनु 78 के अनुसार प्रधान मंत्री राष्ट्रपति को समय समय पर मिल कर राज्य के मामलॉ तथा भावी विधेयक़ो के बारे मे सूचना देगा, इस तरह अनु 78 के अनुसार राष्ट्रपति सूचना प्राप्ति का अधिकार रखता है यह अनु प्रधान मंत्री पे एक संवैधानिक उत्तरदायित्व रखता है यह अधिकार राष्ट्रपति कभी भी प्रयोग ला सकता है इसके माध्यम से वह मंत्री परिषद को विधेयक़ो निर्णयॉ के परिणामॉ की चेतावनी दे सकता है
3. जब कोई राजनैतिक दल लोकसभा मे बहुमत नही पा सके तब वह अपने विवेकानुसार प्रधानम्ंत्री की नियुक्ति करेगा
4. निलंबन वीटो/पाकेट वीटो भी विवेकी शक्ति है
5. संसद के सदनो को बैठक हेतु बुलाना
6. अनु 75 (3) मंत्री परिषद के सम्मिलित उत्तरदायित्व का प्रतिपादन करता है राष्ट्रपति मंत्री परिषद को किसी निर्णय पर जो कि एक मंत्री ने व्यक्तिगत रूप से लिया था पर सम्मिलित रूप से विचार करने को कह सकता है
7. लोकसभा का विघटन यदि मंत्रीपरिषद को बहुमत प्राप्त नही है तो लोकसभा का विघटन उसकी विवेक शक्ति के दायरे मे आ जाता है
किसी कार्यवाह्क सरकार के पास लोकसभा का बहुमत नही होता इस प्रकार की सरकार मात्र सामन्य निर्णय ही ले सकती है ना कि महत्वपूर्ण निर्णय यह राष्ट्रपति निर्धारित करेगा कि निर्णय किस प्रकृति का है
संविधान के अन्तर्गत राष्ट्रपति की स्थिति :
रामजस कपूर वाद तथा शेर सिंह वाद मे निर्णय देते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि संसदीय सरकार मे वास्तविक कार्यपालिका शक्ति मंत्रिपरिषद मे है। 42, 44 वें संशोधन से पूर्व अनु 74 का पाठ था कि एक मंत्रिपरिषद प्रधान मंत्री की अध्यक्षता मे होगी जो कि राष्ट्रपति को सलाह सहायता देगी। इस अनुच्छेद मे यह नही कहा गया था कि वह इस सलाह को मानने हेतु बाध्य होगा या नही।
केवल अंग्रेजी पंरपरा के अनुसार माना जाता था कि वह बाध्य है। 42 वे संशोधन द्वारा अनु 74 का पाठ बदल दिया गया राष्ट्रपति सलाह के अनुरूप काम करने को बाध्य माना गया। 44वें संशोधन द्वारा अनु 74 मे फिर बद्लाव किया गया। अब राष्ट्रपति दी गयी सलाह को पुर्नविचार हेतु लौटा सकता है किंतु उसे उस सलाह के अनुरूप काम करना होगा जो उसे दूसरी बार मिली हो।
राष्ट्रपति की शक्तियों का व्यवहारिक मूल्यांकन :
राष्ट्रपति की स्थिति वैधानिक अध्यक्ष की हैं तथापि उनका पद धुरी के समान है जो राजनीति व्यवस्था को संतुलित करता है| समुचित संवैधानिक प्रावधानों के उपरांत भी भारतीय राष्ट्रपति का पद, उनके संवैधानिक और राजनीतिक दायित्व और राजनीतिक संस्था के रूप में उनकी भूमिका अभी भी वाद-विवाद का विषय बनी हुई है| भारतीय संविधान के द्वारा राष्ट्रपति को जो शक्तियाँ दी गई हैं, व्यवहारिक रूप से वह स्वयं अपने विवेक के आधार पर इन शक्तियों का प्रयोग कर सकता है।
अनु. 53(1) के अनुसार “संघ की कार्यपालिका शक्ति राष्ट्रपति में निहित होगी तथा वह इनका प्रयोग संविधान के अनुसार या तो स्वयं या अपने अधीनस्थ पदाधिकारियों के द्वारा करेगा।“
अनु. 74(1) के अनुसार राष्ट्रपति को अपने कार्यों को सम्पादन करने में सहायता और मंत्रणा देने के लिए मंत्रीपरिषद होगी जिसका प्रधान प्रधानमंत्री होगा|”
इन अनुच्छेदों के आधार पर विचारकों का मानना है कि राष्ट्रपति मंत्रीपरिषद की सलाह मानने के लिए बाध्य नहीं होगा।
बी.एम. शर्मा के अनु. 53(1) के अनुसार यदि राष्ट्रपति चाहे तो वास्तविक शासक बन सकता है। इसी तरह डी. एन. बैनर्जी का कहना है कि क्या राष्ट्रपति को अनु. 74(1) के उपबंध मानने के लिए बाध्य किया जा सकता है ? क्या राष्ट्रपति हर स्थिति में अपने मंत्रियों की मंत्रणा मानने पर बाध्य है ? उनके अनुसार ऐसा नहीं है।
एलैन ग्लैडहिल के अनुसार राष्ट्रपति अपने मंत्रीमंडल को बर्खास्त करके मन चाहे लोगों को मंत्री बना सकता है, लोकसभा को भंग कर सकता है, संकटकाल की घोषणा करके राज्यों पर अपना शासन स्थापित कर सकता है। लोकसभा की पहली और अंतिम बैठक में छह महीने का अंतराल होता है तो इसका अर्थ यह है कि राष्ट्रपति छह महीने तक मनचाही शक्तियों का उपयोग कर सकता है। ग्लैडहिल के अनुसार यदि राष्ट्रपति वास्तव में इन शक्तियों का उपयोग करने लगे तो वह तानाशाह बन सकता है।
प्रारूप समिति के वैधानिक सलाहकार श्री. बी.एन. राव के अनुसार “संविधान राष्ट्रपति का ऐसा कोई वैधानिक उत्तरदायित्व निश्चित नहीं करता है कि वह मंत्रियों की सलाह के आधार पर कार्य करेगा। वह किस सीमा तक ऐसा करने के लिए बाध्य होगा यह परम्परा का विषय है।
संविधान सभा के अध्यक्ष
# डॉ_राजेन्द्र_प्रसाद का मत यह था कि “अनु. 74(1) यह नहीं कहता कि राष्ट्रपति को मंत्रियों की सलाह माननी ही होगी। परन्तु 42वें संविधान-संशोधन कानून (1976) में यह स्पष्ट रूप से व्यवस्था कर दी गई कि “राष्ट्रपति मंत्री परिषद् की मंत्रणा या सलाह के अनुसार कार्य करेगा|”
हालाँकि संविधान संशोधन की राजनेताओं और विद्वानों द्वारा इस आधार पर आलोचना की गई कि राष्ट्रपति के पद की गरिमा घट गई है और वह ‘रबर की मोहर’ बनकर रह गया है।
जनता पार्टी की सरकार द्वारा किये गए 44वें संविधान संशोधन अधिनियम में यह व्यवस्था की गई कि “राष्ट्रपति ‘मंत्रीपरिषद’ से यह कह सकता है कि वह अपने निर्णय पर पुनर्विचार करे। पुनर्विचार के बाद मंत्रीमंडल जो मंत्रणा या सलाह देगा राष्ट्रपति उसके अनुसार कार्य करेगा।“
परन्तु हमारे कुछ विगत राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद, डॉ. राधाकृष्णन और श्री. वी.वी. गिरी, श्री नीलम संजीव रेड्डी, श्री ज्ञानी जैल सिंह नाममात्र के अधिकारों से कुछ ज्यादा अधिकार प्रयुक्त करने की इच्छा रखते थे। ऐसा कहा जाता है कि प्रधानमन्त्री नेहरु के विचार डॉ. राजेन्द्र प्रसाद के विचारों से मेल नहीं खाते थे और कुछ मामलों में, उदहारण के लिए हिन्दू कोड बिल, नियोजन सहकारी, कृषि, भाषा की समस्या आदि पर उनके बीच काफी मतभेद रहे|
डॉ. राजेन्द्र प्रसाद ने 28 नवम्बर 1960 को ‘भारतीय विधि संस्थान’ के शिलान्यास करते समय भाषण के दौरान इस तथ्य के विषय में कहा कि “संविधान में कोई ऐसी सुनिश्चित व्यवस्था नहीं जिसके अनुसार राष्ट्रपति अपनी मंत्रीपरिषद के परामर्श के अनुसार कार्य करने के लिए बाध्य हो|” उन्होंने इस बात का संकेत दिया कि राष्ट्रपति नाम मात्र का प्रधान नहीं है| उनके इस भाषण का नेहरु की और से आलोचनात्मक स्पष्टीकरण किया गया| डॉ. राजेन्द्र प्रसाद और प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू के बीच हिन्दू कोड बिल को लेकर मतभेद उभरकर आए, परन्तु राष्ट्रपति ने हिन्दू विवाह या विवाह-विच्छेद अधिनियम के बनाने में बाधा नहीं डाली। राष्ट्रपति डॉ राधाकृष्णन भी केवल नाम मात्र की शक्तियों का पालन करने वाले राष्ट्रपति के रूप में काम नहीं करना चाहते थे| वह भी देश की समस्याओं के समाधान के लिए अपनी वास्तविक शक्तियों के इस्तेमाल के समर्थक थे|
ऐसा माना जाता है कि इस अवसर पर तत्कालीन राष्ट्रपति भी नेहरु मन्त्रीमंडल के त्यागपत्र दिए जाने के पक्ष में थे| 1962 में चीन द्वारा भारत पर आक्रमण किए जाने पर प्रधानमंत्री नेहरू और राष्ट्रपति डॉ. राधाकृष्णन के बीच सैनिक नियुक्तियों को लेकर कुछ अनबन हो गई थी, हालाँकि विशवास भंग की स्थिति पैदा नहीं हुई। श्रीमती गाँधी और
राष्ट्रपति डॉ राधाकृष्णन के बीच भी मतभेद उभर कर आये।राष्ट्रपति ने 26 जनवरी 1967 को अपने भाषण में सरकार की कटु आलोचना की और उनपर साधनों के कुप्रबंध तथा कार्यकुशलता के अभाव का आरोप लगाया| इसके पश्चात डॉ वी. वी. गिरी और श्रीमती गाँधी के बीच भी कई मामलों में मतभेद उभरकर आये| 1977 में निर्वाचित राष्ट्रपति डॉ नीलम संजीव रेड्डी ने काफी हद तक स्वतंत्र रूप से कार्य किया और विवाद ग्रस्त स्थितियों में अपने व्यक्तिगत निर्णय और सूझ-बूझ से काम लिया| 1980 में लोकसभा के मध्यावधि चुनाव के परिणामस्वरुप पुनः कांग्रेस दल सत्ता में आया| इस समय रेड्डी राष्ट्रपति थे|
अनेक अवसरों पर राष्ट्रपति को अपनी इच्छा के विरुद्ध कार्य करना पड़ा और कई बार ऐसे अवसर भी आये, जब उन्होंने प्रधानमन्त्री की इच्छा की कोई परवाह नहीं की| उच्च न्यायालय के कुछ न्यायधीशों के तबादले के मामले में उन्होंने सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायधीश से यह जानना चाहा कि राष्ट्रपति के परामर्श का बिना तबादले क्यों किये गए| राष्ट्रपति संजीव रेड्डी ने अपने भाषणों में कई बार सरकार की आलोचना भी की और श्रीमती गाँधी ने भी सप्ताह में एक बार राष्ट्रपति से मिलने की परंपरा का निर्वाह नहीं किया|
1982 में ज्ञानी जैल सिंह राष्ट्रपति बने और 1984 में श्रीमती गाँधी के बाद राजीव गाँधी प्रधानमन्त्री बने और 1987 से राष्ट्रपति और प्रधानमन्त्री के बीच गंभीर विवाद उत्पन्न होने शुरू हो गए| ऐसा लग्न लगा था कि व लोक सभा का विघटन कर प्रधानमन्त्री को हटा देंगे|
राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह ने डाकघर संशोधन विधेयक (1986) को अंत तक न तो स्वीकृति ही दी और न पुनर्विचार के लिए संसद को लौटाया। राष्ट्रपति ने अपनी जेबी वीटो (पॉकेट वीटो) का इस्तेमाल किया|
राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह को यह शिकायत थी कि उन्हें राजकाज संबंधी सूचनाएँ नहीं दी जातीं। संविधान विशेषज्ञों का कहना है कि राष्ट्रपति का ‘सूचना माँगने का अधिकार’ सीमित है। किसी प्रधानमंत्री को इस आधार पर बर्खास्त करने का अधिकार राष्ट्रपति को किसी हालत में नहीं है।
इन सब तर्कों के आधार पर यही कहा जा सकता है कि राष्ट्रपति नाममात्र का अध्यक्ष है, वास्तविक अध्यक्ष नहीं।
राय साहब राम जवाया कपूर बनाम पंजाब राज्य (1955) मुकदमे के फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में यही कहा कि “राष्ट्रपति कार्यपालिका का औपचारिक या संवैधानिक अध्यक्ष है जबकि वास्तविक प्रशासकीय शक्तियाँ मंत्रीपरिषद में हैं।“ शमशेर सिंह वाद में भी इस निर्णय की पुष्टि की गई।
साधारणतया यह माना जाता है की राष्ट्रपति संवैधानिक अध्यक्ष के पद पर कार्य करते हुए कार्यपालिका पर नियंत्रण रखेगा और आवश्यकता पड़ने पर उचित परामर्श भी देगा| दिन-प्रतिदिन बदलती भारतीय राजनीतिक व्यवस्था में राष्ट्रपति की भूमिका सक्रिय बनती जा रही है क्योंकि गठबंधन की राजनीति ने प्रधानमन्त्री के पद की गरिमा को कम कर दिया है।

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